धोखेबाज आक्रांता बख्तियार खिलजी जिसने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया?
By -तहक़ीक़ात
दिसंबर 15, 2024
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धोखेबाज आक्रांता बख्तियार खिलजी की कहानी जिसने हमारे ज्ञान के केंद्र नालंदा महाविद्यालय को जला दिया।
बख्तियार खिलजी तुर्की के सैन्य कमांडर था जो एक बार गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उसके सारे हकीम इलाज करते रहे पर बीमारी का पता नहीं लग पाए। खिलजी दिन पर दिन कमजोर होता गया और उसका चलना उठना भी मुश्किल हो गया। उसे लगा कि अब उसके अंतिम दिन आ गए हैं।
एक दिन उससे मिलने आए एक व्यक्ति ने उनको सलाह दी कि भारत के मगध साम्राज्य में स्थित नालंदा महाविद्यालय के एक ज्ञानी राहुल शीलभद्र को एक बार दिखा दें, वे आपको ठीक कर देंगे।
खिलजी तैयार नहीं हुआ! उसने कहा कि भले मैं मर जाऊं पर मैं किसी काफ़िर के हाथ की दवा नहीं ले सकता हूँ। मगर अपनी बेगम की जिद के आगे वह मान गया।
राहुल शीलभद्र जी तुर्की आए। खिलजी ने उनसे कहा कि मुझे दूर से ही देखो छूना मत क्योंकि तुम काफिर हो और मैं काफिर से दवा नही लूंगा।
राहुल शीलभद्र जी ने उसका चेहरा देखा, शरीर का मुआयना किया, बलगम से भरे बर्तन को देखा, सांसों के उतार चढ़ाव का अध्ययन किया और बाहर चले गए।
थोड़ी देर बाद वापस आकर पूछा कि क्या आप नमाज पढ़ते हैं?
खिलजी ने कहा- पढ़ते हैं!
शीलभद्र जी ने पूछा- पन्ने कैसे पलटते हैं?
खिलजी ने कहा- उंगलियों से जीभ को छूकर पन्ने पलटते हैं!!
शीलभद्र जी को इलाज का तरीका मिल गया था उन्होंने खिलजी को एक कुरान भेंट की और कहा कि आज से आप इसे पढ़ें और राहुल शीलभद्र जी वापस भारत लौट आए।
खिलजी की तबीयत ठीक होने लगी और कुछ ही दिन में वह बिल्कुल ठीक हो गया। दरअसल राहुल शीलभद्र जी ने कुरान के पन्नों पर दवा लगा दी थी और खिलजी जब भी जीभ पर उंगली लगाकर पन्ने पलटता था पन्नों में लगी दवा उसके जीभ पर लग जाती थी।
खिलजी अचरज में था मगर उससे भी ज्यादा ईर्ष्या और जलन से मरा जा रहा था कि आखिर एक काफिर ईमानवालों से ज्यादा काबिल कैसे हो गया?
अगले ही साल उसने सेना तैयार की और मगध क्षेत्र के नालंदा महाविद्यालय जा पहुंचा। जहां पर पूरी दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञान और विज्ञान का केंद्र था और जहां हजारों छात्र और शिक्षक एक बड़े परिसर में रहते थे। जहां एक तीन मंजिला इमारत में विशालकाय पुस्तकालय था, जिसमें एक करोड़ पुस्तकें, पांडुलिपियां एवं ग्रंथ थे।
खिलजी जब वहां पहूँचा तो शिक्षक और छात्र उसके स्वागत में बाहर आ गए, क्योंकि उन्हें लगा कि वह आभार व्यक्त करने आया है।
खिलजी ने उन्हें देखा और मुस्कुराया और तलवार से भिक्षु श्रेष्ठ की गर्दन काट दी। फिर हजारों छात्र और शिक्षक गाजर मूली की तरह काट डाले गए क्योंकि अचानक हमले से यह पूर्णतयः अनभिज्ञ थे।
खिलजी ने फिर नालंदा महाविद्यालय और उसके पुस्तकालय में आग लगा दी। कहा जाता है कि पूरे तीन महीने तक महाविद्यालय और पुस्तकें जलती रहीं।
खिलजी चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि तुम काफिरों की हिम्मत कैसे हुई इतनी पुस्तकें पांडुलिपियां इकट्ठा करने की? बस एक दीन रहेगा धरती पर बाकी सब को नष्ट कर दूंगा।
पूरे नालंदा को तहस नहस कर जब वह लौटा तो रास्ते में विक्रम शिला विश्वविद्यालय को भी जलाते हुए लौटा। मगध क्षेत्र के बाहर बंगाल में वह रूक गया और वहां खिलजी साम्राज्य की स्थापना की।
जब वह लद्दाख क्षेत्र होते हुए तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तभी एक रात उसके एक कमांडर ने उसकी हत्या कर दी। आज भी बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर में उसकी कब्र है जहां उसे दफनाया गया था।
और सबसे हैरत की बात है कि उसी दुर्दांत हत्यारे के नाम पर बिहार में बख्तियारपुर नामक जगह है जहां रेलवे जंक्शन भी है जहां से नालंदा की ट्रेन जाती है।
यह थी एक भारतीय बौद्ध भिक्षु शीलभद्र की शीलता, जिन्होंने तुर्की तक जाकर तथा दुत्कारे जाने के पश्चात भी एक शत्रु की प्राण रक्षा अपने चिकित्सकीय ज्ञान व बुद्धि कौशल से की। बदले में क्या मिला? शांतिप्रिय समुदाय की एहसान फरामोशी! प्राण, समाज व संस्कृति पर घात!
दुर्भाग्यवश तब से अब तक कुछ नही बदला, हम आज भी उस क्रूर आक्रांता के नाम पर बसाये गए शहर का नाम भी नही बदल पाए।
इतिहास कट्टरपंथियों और धोखेबाजों की क्रूरताओं से भरा पड़ा है, और हम अब भी समझने का नाम नही ले रहे हैं।
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